पास बाले घर की बहू
Pas bale ghar ki bahu
वह आराम से आठ बजे सोकर उठती, चाय पीती, फिर नहा-धोकर सज-धजकर बैठ जाती. लोगों से चहक-चहककर बातें करती, क्योंकि मायका बगल में होने के कारण उसे माता-पिता से दूर होने का एहसास ही नहीं हुआ. ग्यारह-बारह बजे अपने कमरे में चली जाती और घंटों सोती रहती, केवल खाने व चाय के लिए निकलती. सुबह-शाम उसके भतीजे-भतीजी डिब्बा लिए हाज़िर रहते, ‘मम्मी ने दिया है, बुआ को बहुत पसंद है.’
बार-बार नाम लेकर पुकारने पर भी ऋषभ ने जवाब नहीं दिया. चाय ठंडी हुई जा रही थी, इसलिए विवश होकर मैं ही ऊपर पहुंच गई, जहां रिया अपनी छत पर खड़ी उससे बतिया रही थी. उनके प्रेमभरे ‘गुटर गूं’ में मेरे तीक्ष्ण स्वर “चाय पीनी है?” ने विघ्न डाल दिया. रिया वहां से टली नहीं, मुस्कुराकर बोली, “नमस्ते आंटीजी.” मैंने अभिवादन का जवाब दिया और पैर पटकती नीचे उतर आई, “बेशरम कहीं की, मां के सामने ही उसके बेटे से प्रेम की पींगें बढ़ा रही है, कोई लिहाज़-संकोच है ही नहीं.” “मां, कहां है मेरी चाय?” नीचे आकर ऋषभ ने पूछा. “देख ऋषभ, अब तू बच्चा नहीं है, एक ज़िम्मेदार बैंक ऑफिसर है. छत के उस कोने में खड़े तुम दोनों क्या खुसुर-फुसुर करते रहते हो? बचपन में साथ खेलते थे, मैंने ध्यान नहीं दिया. बड़े हुए तो एक ही कॉलेज में थे, सो मैं चुप रही, लेकिन अब, अब क्या बातें होती हैं?” “मां, हमने बचपन से लेकर अब तक एक लंबा समय साथ में बिताया है, अब तो हमें एक-दूसरे से बात करने की आदत हो गई है. तुम व्यर्थ ही चिंता करती रहती हो. हमारे बीच ऐसा कुछ भी तो नहीं है. हम स़िर्फ बात ही तो करते हैं.” “बात बढ़ते समय नहीं लगता.” मेरी भृकुटी में बल पड़ रहे थे. अपने योग्य, सुंदर बेटे की पड़ोस की साधारण-सी रिया से नज़दीकियां मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रही थीं. ऋषभ के ‘कुछ भी तो नहीं है’ कहने पर भी मुझे विश्वास नहीं हुआ. रिया के बदले रुख पर मैं हैरान-परेशान रहती थी. आजकल आए दिन कभी पकौड़े की प्लेट, तो कभी अचार की शीशी लिए हाज़िर हो जाती थी. ऐसे ही एक दिन वो घर पर आ धमकी. उसे देख मैंने कहा, “सूट तो बड़ा सुंदर है. इसे दिखाने आई थी या पकौड़े देने?” “कुछ भी समझिए आंटीजी, वैसे कैसी लग रही हूं?” “ठीक है.” मुझे कहना पड़ा, उसे देखकर ही मैं शंकाग्रस्त हो जाती. बचपन में दिन-रात साथ खेलते बच्चों को युवावस्था में अलग कर देना मुश्किल होता है. हम तीन बहनों की संतानों में ऋषभ इकलौता था. पति के खानदान में भी वह सबसे बड़ा और लाड़-प्यार से पला था. उसकी शादी को लेकर हम सबने बड़े सपने संजोए थे, किंतु हमारे सारे अरमानों पर पानी फिर गया. जल्दी ही ऋषभ ने रिया से विवाह की घोषणा करके हम सबको गहरा आघात दिया. हज़ारों कमानेवाले ऋषभ की अकेली विवाहिता बहन रागिनी ने इसका पुरज़ोर विरोध किया. मैंने तो घर छोड़कर जाने की धमकी तक दे डाली, पर ऋषभ प्रभावहीन रहा. बोला, “आप घर छोड़कर क्यों जाएंगी? मैं ही अलग हो जाऊंगा. बस, रिया से शादी करवा दीजिए.” “करवा दूंगी. सारे निर्णय तो ख़ुद ले चुका है. शादी भी कर ले.” “ठीक है, कोर्ट-मैरिज कर लेता हूं. मुझे तो आपके विरोध का कारण समझ नहीं आ रहा है. हमारी जाति की है, पढ़ी-लिखी, धनी परिवार की है और सबसे बड़ी बात मुझे पसंद है.” “मैंंने जैसी बहू की कल्पना की थी, वो वैसी नहीं है. सिर चढ़ी- नखरैल, पता नहीं क्या देखा तूने उसमें?” “शादी तो मुझे करनी है, मुझे पसंद है वह.” “भइया! आपको मम्मी से ऐसे बात नहीं करनी चाहिए.” “तू चुप रह, मम्मी की चमची. अभी दो दिन में संदीप के पास चली जाएगी. तूने भी तो की थी अपनी पसंद से शादी, मैंने कोई विरोध किया था?” रागिनी चुप हो गई, उसने भी प्रेमविवाह किया था, लेकिन मैंने उसमें अपनी सहमति दी थी. मैं कुछ बोलती उससे पहले ऋषभ के पापा बोले, “ऋषभ की शादी रिया के साथ ही होगी. जवान लड़का घर से चला जाए, यही चाहते हो क्या तुम लोग? यह सब मैं नहीं होने दूंगा. अब कोई एक शब्द नहीं बोलेगा. शादी की तैयारी करो.” उसके बाद सबने चुप्पी साध ली. शादी, बारात तक मैं बिल्कुल शांत रही. मुंह दिखाई में पांच तोले का हार दिया, लेकिन यह देखकर मेरा मुंह उतर गया कि रिया के माता-पिता ने दान-दहेज काफ़ी कम दिया था. हालांकि बारातियों का स्वागत बढ़िया था. रिया की व्यक्तिगत सभी चीज़ें अच्छी क्वालिटी की थीं, पर हर पारंपरिक सास जैसे घर के अन्य सदस्यों व वर के लिए कीमती गिफ्ट व नक़द की अपेक्षा करती है, मैं भी कुछ उसी तरह की अपेक्षाएं पाले बैठी थी, पर ऋषभ के पिता का सख़्त निर्देश था कि मुंह खोलकर कोई मांग नहीं की जाएगी. बहरहाल, रिया बहू बनकर हमारे घर आ गई. जब तक घर रिश्तेदारों से भरा था, मैंने उसे आराम करने दिया. वह आराम से आठ बजे सोकर उठती, चाय पीती, फिर नहा-धोकर सज-धजकर बैठ जाती. लोगों से चहक-चहककर बातें करती, क्योंकि मायका बगल में होने के कारण उसे माता-पिता से दूर होने का एहसास ही नहीं हुआ. ग्यारह-बारह बजे अपने कमरे में चली जाती और घंटों सोती रहती. केवल खाने व चाय के लिए बाहर निकलती. सुबह-शाम उसके भतीजे-भतीजी डिब्बा लिए हाज़िर रहते, ‘मम्मी ने दिया है, बुआ को बहुत पसंद है.’ ‘दादी ने फूफाजी के लिए भेजा है.’ उन डिब्बों के स्वादिष्ट व्यंजनों से मुझे परहेज़ न था, लेकिन ‘फूफा-बुआ मात्र’ की भावना चुभ जाती. जिस दिन ऋषभ-रिया नैनिताल जा रहे थे, रिया ने आकर मुझसे कहा था, “आप परेशान मत होइएगा, मेरी मम्मी ने रास्ते के लिए खाना बना दिया है.”
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